भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल

भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल?

Sep 07, 2017
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3 : प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव-विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन।
(खंड-01: भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय।)


सन्दर्भ
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (Central Statistics Office-CSO) द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक अप्रैल से जून की तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर महज 5.7 फीसदी रही है। पिछले वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर 7.9 फीसदी थी, यानी पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले इसकी पहली तिमाही में वृद्धि दर में दो फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज़ की गई है। स्थिर गिरावट की यह प्रवृत्ति चिंता का विषय है। हालाँकि सब कुछ चिंताजनक ही नहीं है बल्कि कुछ सकारात्मक बातें भी दिख रही हैं, फिर भी यह क्यों कहा जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल मँडराने लगे हैं? इस लेख में हम इन्हीं बातों का परीक्षण करेंगे।
मौजूदा अर्थव्यवस्था के अनुकूल कुछ बिंदु:
1. मुद्रास्फीति सामान्यतः मध्यम स्तर पर ही रही है और इसने हाल ही में 1.5% के निम्नतम स्तर को छुआ है।
2. व्यापार और राजकोषीय घाटा दोनों ही मध्यम स्तर के और नियंत्रण योग्य रहे हैं।
3. पिछले डेढ़ वर्षों में बयाज़ दर में लगातार कमी की गई है।
4. वित्तीय बाज़ारों (स्टॉक और बॉन्ड) और प्रत्यक्ष निवेश के रूप में डॉलर का आना लगातार ज़ारी है।
5. शेयर बाज़ार का सूचकांक अब तक के उच्चतम स्तर पर है।
6. पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें तुलनात्मक रूप से स्थिर हैं।
7. बेहतर मानसून से कृषि उत्पादन में वृद्धि की संभावनाएँ बढ़ गई हैं।
विभिन्न क्षेत्रों में वृद्धि दर
  • व्यापार, होटल, परिवहन और संचार आदि क्षेत्रों में पहली तिमाही में 7 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज़ की गई है।
  • खनन गतिविधियों में 0.7% प्रतिशत की गिरावट आई है।
  • निर्माण क्षेत्र में 2 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज़ की गई है।
  • कृषि क्षेत्र में 2.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
  • नागरिक उड्डयन क्षेत्र में 15.6% की वृद्धि हुई है।
वृद्धि दर में गिरावट:
  • वृद्धि की अनुकूल परिस्थितियों के बावज़ूद हमारी अर्थव्यवस्था उन्हें उच्च वृद्धि दर का रूप देने में सफल नहीं रही है। यहाँ तक ​​कि अर्द्ध-वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस बात की ताकीद की गई थी कि वृद्धि दर में 1 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। दरअसल वृद्धि दर में 1% का घाटा बहुत मायने रखता है।
गिरावट के कारण
  • जानकारों के अनुसार वृद्धि दर में गिरावट की प्रमुख वज़ह उद्योग क्षेत्र के निराशाजनक प्रदर्शन से है, जो पिछले साल 7.4% की तुलना में 1.6% पर आ गई है। पिछली तिमाही में औद्योगिक उत्पादन में 3.1% की वृद्धि हुई थी।
  • विश्लेषकों ने गत पाँच वर्षों में विनिर्माण क्षेत्र के लिये इसे सबसे खराब तिमाही माना है।  विनिर्माण क्षेत्र ने पिछली तिमाही में 5.3% की तुलना में इस बार 1.2% की वृद्धि दर्ज़ की और पिछले साल की इसी तिमाही में यह 10.7% थी।
  • खनन गतिविधियों में भी पिछली तिमाही में 6.4% की वृद्धि के मुकाबले इस बार 0.7% की गिरावट आई है।  सेवा क्षेत्र का प्रदर्शन संतोषजनक रहा, परंतु कृषि क्षेत्र ने निराश किया है।
नोटबंदी के प्रतिकूल प्रभाव
  • नोटबंदी के कारण नकदी की कमी से उद्योग-धंधों पर असर पड़ा था।  यद्यपि सरकार द्वारा 1, जुलाई से जीएसटी लागू किया गया, परंतु इसे लेकर पहले से ही बाज़ार में अनिश्चितता फैल गई थी।
  • विनिर्माण, उत्पादन व अन्य क्षेत्रों कामकाज ठप हो गया था।  वृद्धि दर में गिरावट का एक बड़ा हिस्सा इनपुट की लागत में वृद्धि से भी संबंधित है।  यह स्थिति वाकई चिंताजनक है और इन आँकड़ों को सुधारने के लिये सरकार को नीतिगत और निवेश के स्तर पर कई कार्य करने होंगे।
मज़बूत रुपया: एक समस्या
  • दरअसल, रुपए में पिछले कुछ दिनों से जो एकतरफा तेज़ी दिख रही है, उसके फायदे कम और नुकसान अधिक नज़र आ रहे हैं। रुपया अगर और मज़बूत हुआ तो पटरी पर लौट रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर फिर से दबाव बन सकता है। विदित हो कि हाल ही में रूपए के मुकाबले डॉलर का मूल्य घटकर 63.50 रुपए तक आ गया है।
  • भारतीय आईटी कंपनियों का अधिकतर कारोबार विदेशों में होता है और उनकी कमाई डॉलर में आती है। रुपया मज़बूत होने से आईटी कंपनियों को डॉलर की कमाई भारतीय करेंसी में बदलने पर कम रुपए मिलेंगे। ऐसा होने से आईटी कंपनियों के मुनाफे पर चोट पड़ेगी।
  • देश से आईटी निर्यात के अलावा फार्मा निर्यात भी काफी अच्छा है। आईटी कंपनियों की तरह फार्मा कंपनियों की कमाई भी डॉलर में होती है और रुपया मज़बूत होने से फार्मा कंपनियों का प्रॉफिट मार्ज़िन भी कम होगा।
  • रुपए की तेज़ी का सबसे प्रतिकूल असर उन उद्योगों पर देखने को मिलेगा, जिनका कारोबार निर्यात पर टिका हुआ है। हीरे एवं जवाहरात के अलावा टेक्सटाइल उद्योग, इंजीनियरिंग गुड्स उद्योग और पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात करने वाले उद्योग इस श्रेणी में अहम हैं। डॉलर की कमज़ोरी की वज़ह से इन सभी उद्योगों के लाभांश कम होंगे।
अपस्फीति का खतरा
  • यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि निकट भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपस्फीति (deflation) का भारी दबाव होगा। दरअसल, वैश्विक तेल बाज़ार में बदलाव और अच्छे उत्पादन के कारण महँगाई कम हुई है, जिससे अपस्फीति के लक्षण दिखने लगे हैं। अपस्फीति, मुद्रास्फीति की उलट स्थिति है।
  • यह कीमतों में लगातार गिरावट आने की स्थिति है। अपस्फीति के माहौल में उत्पादों और सेवाओं के मूल्य में लगातार गिरावट होती है।  लगातार कम होती कीमतों को देखते हुए उपभोक्ता इस उम्मीद से खरीदारी और उपभोग के फैसले टालता रहता है कि कीमतों में और गिरावट आएगी। ऐसे में समूची आर्थिक गतिविधियाँ विरामावस्था में चली जाती हैं।
  • मांग में कमी आने पर निवेश में भी गिरावट देखी जाती है। अपस्फीति का एक और साइड इफेक्ट बेरोज़गारी बढ़ने के रूप में सामने आता है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में मांग का स्तर काफी घट जाता है। रोज़गार की कमी मांग को और कम करती है, जिससे अपस्फीति बढ़ती ही जाती है।
आगे की राह
  • भविष्यगत क्षमताओं में निवेश से ही भविष्य में बेहतर जीडीपी दर प्राप्त होने की संभावना बनी रहती है। निवेश के लिये निजी और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों को ही आगे आना होता है। लेकिन जहाँ तक निजी क्षेत्र द्वारा निवेश का प्रश्न है, हम इस मोर्च पर लागातार पिछड़ते जा रहे हैं।
  • वर्तमान में निजी क्षेत्र 1.5% की दर से वृद्धि कर रहा है, यही कारण है कि कई वर्षों से पूंजी निर्माण में लगातार गिरावट आ रही है। सरकार को निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहन देना होगा।
  • लेकिन मुख्य समस्या यह है कि प्रायः निजी क्षेत्र के निवेशकों द्वारा किसी प्रोजेक्ट की लागत को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि जितना निवेश बैंकों के माध्यम से सरकार करती है उसकी तुलना में निजी निवेशकों द्वारा बहुत ही कम निवेश किया जाता है। 
  • ऐसे में बैंक खातों में बकाया ऋण के तौर पर जो रकम दिखती है उस रकम की कभी भरपाई ही नहीं हो पाती। फलस्वरूप उसे गैर-निष्पादनकारी सम्पतियों की सूची में डाल दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार भी अहम् भूमिका निभाता है। ऐसे में सरकार को चाहिये कि अवसंरचना निर्माण क्षेत्र के निवेश उपक्रमों में पारदर्शिता बहाल करे।
  • मेक इन इंडिया में अब तक हुई प्रगति का आकलन और कमियों को दूर करने के प्रयास, इज़ ऑफ डूईंग बिज़नेस को बेहतर करने की कवायद आदि जैसे प्रयासों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
  • जहाँ तक रुपए की मज़बूती से नियंत्रण का प्रश्न है तो हमें इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिये घरेलू विनिर्माण उद्योग को सुरक्षा प्रदान करने वाली नीतियों को अमल में लाना होगा।
  • वहीं यदि अपस्फीति पर नियंत्रण की बात करें तो इस स्थिति में सरकार को ज़्यादा रुपए छापने होते हैं। ज़्यादा मुद्रा छापने से अर्थव्यवस्था में पैसा बढ़ जाता है और लोगों के पास खर्च के लिये अधिक रकम उपलब्ध हो जाती है।
  • अपस्फीति से निपटने के लिये दूसरा हथियार है रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति। सरकारी बॉन्ड खरीदकर आरबीआई पैसे की आपूर्ति बढ़ा सकता है। रिज़र्व बैंक दरों में और कटौती कर सकता है।
निष्कर्ष
यह तो तय है कि आने वाला समय भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये आसान नहीं रहने वाला है। हालाँकि, सरकार ने इसके लिये कुछ तैयारियाँ भी की हैं जैसे, बैंकरप्सी कोड, जीएसटी, बैड बैंक की स्थापना को लेकर गंभीरता आदि, लेकिन वास्तविक चुनौती इन योजनाओं को असली जामा पहनाने को लेकर है।
प्रश्न: विमुद्रीकरण के प्रतिकूल प्रभावों के सतह पर आते ही यह चर्चा होने लगी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल मँडराने लगे हैं। पिछले कुछ महीनों में देखे जाने वाले प्रतिकूल प्रभावों के अंतर्निहित प्रवृत्तियों की चर्चा करते हुए समाधान के बिंदु सुझाएँ।
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